Sunday, February 17, 2013

एक मुलाकात


दिसंबर की जादुई सुबह,
गुम कर देती है चहरे की हॅसी,
ठिठक कर छोड़ देते है पते अपनी शाखाओं को,
उन्हे इंतज़ार है मौसम बदलने का,
और मुझे तुम्हारा|

मैं तुम्हारे घर के सामने खड़ा था,
सूरज मौसम की अल्हड़ शैतानियो से भिड़ा था,
सूरज से मेने पूछा,
जब हो तुम इतने शक्तिशाली,
क्यू मानते हो मौसम की मनमानी|

सूरज खिलखिला कर बोला,
करवट बदलता यह मौसम,
मुझे रोज़ आश्चर्यचकित कर जाता है,
इसकी यही मस्तमौला अदाए,
मकसद देती है रोज़ मुझे रात से टकराने का |

तभी मौसम नें भी करवट ली,
मुड़ा तो देखा,
स्वेटर में लिपटी तुम,
खुशियोन का पिटारा ला रही थी|

तुम्हारे जाते ही,
मौसम नें अंगड़ाई ली और मुझे पूछा,
क्यों ताकते रहे तुम उसकी राह कई घंटे,
मैं कुछ बोलू उससे से पहले ही,
मौसम और सूरज खिलखिलाए,
मैं भी मस्ती में झूमा,
फिर घर को ओर मुड़ गया|

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