Tuesday, October 1, 2013

चिठ्ठी

असमंजस में हूँ आज
बड़े दिनो बाद एक खत आया है
नाम पता तो मेरा ही है
पर जिसके लिए यह खत है
वो अब नहीं रहता यहाँ पर
कुछ 5 साल पहले एक पीपल के पेड़ के नीचे
वो किसी का इंतज़ार करता रहा कई पहर
नहीं लौटा फिर कभी वो
अगर यह चिठ्ठी 5 साल पहले गयी होती
तो एक  हस्ती मिट्टी में ना मिलती
और शिकयात ना होती उसे
जो उस दिन ना पाई
करती भी तो क्या
बेड़िया सोने की थी
और सलाखें लाज की|


Saturday, March 9, 2013

किस्से बचपन के


अंधेरे की चादर तले छुपते-छुपाते,
आमों को चादर में बाँधे,
डरे सहमे बढ़े घर की ओर|

कभी हवा की सरसराहट,
तो कभी दूर पशुऔ की आहट,
रोंगटे खड़े कर देती|

टॉर्च की मधम- रोशनी,
रास्ता कम दिखलाती पर हिम्म्त बढ़ाती,
कुछ दूर चिमनी से निकलता धुँआ,
ढाढस देता आगे बढ़ने का|

दबे पावं से घर में घुस कर,
छिपाना आमों को बिस्तर तले|

फिर असमंजस में पड़ जाता दिल,
रोज़-2 नये बहाने बनाना इतना आसान नहीं,
मास्टर तो पट जाते है चिकनी चुपड़ी बातों से,
ना माने तो बस हतेलि या लाल हो जाती,
पर माँ को बनाना इतना आसान नहीं|

माँ के पास जाके गले लग जाना,
हल्के से ईक बहाना बताना,
आज खेल के बाद बेट ग्राउंड में छूट गया,
आज मोंटू साइकल के लूड़क गया|

पहले थोडा गुस्सा माँ का,
फिर लाड़-प्यार से रोटी खिलाना,
कल फिर जल्दी आने का वादा करना|

आज बहुत थक गये है यह कहना,
सोने के बहाने कमरे की चिटकनी लगाना,
चुपके से पानी में भिगो कर आम खाना,
और दबी आवाज़ में इठलाना,
दिन थे वो आज़ादी के|

Tuesday, February 26, 2013

प्रकृति और मैं


शाम की मध्म-2 रोशनी में,
फूल मुस्कुरा रहे है अंगान में,
इनके अनेक रंग है मेरी खुशी का सबब,
घण्टों मैं इनकी खूबसूरती निहारता रहता हूँ,
सोचता हूँ क्या यह है मुझसे बहुत अलग|

गर्मी में सूरज को कोसता रोज़ निकलता घर से,
अनेको पानी की बोतलें भी ना बुझा पाती थी प्यास,
पौधे भी मुरझाए से लगाए रहते थे मानसून की आस|

जब बरसात आयी,
छाए थे गगन पर घनघोर घटाए,
नयी कोमल कोमपलें झूमती थी बूँदों के सपर्श से,
बारिश में चप्पले पहने छप-2 करता था मैं दोस्तों के साथ|

सर्दी के वो दिन थे,
गायब थी शाकाएँ पौधों की,
आवाज़ वो पतों की सरसारहात की,
मैं भी टोपी-स्वेटर पहने,
बंद कमरे में भी चुपचाप रज़ाई तले दबा रहता|

आज मौसम सुहाना है,
खुश्बू है फूलों की हवाओं में,
ठहाको से दोस्तों संग माहौल खुशनुमा है|


बदलती हुई समय के साथ सबकी फ़ितरत देखकर,
सोचता हूँ क्या मैं हू प्रकृति से अलग!

Sunday, February 17, 2013

एक मुलाकात


दिसंबर की जादुई सुबह,
गुम कर देती है चहरे की हॅसी,
ठिठक कर छोड़ देते है पते अपनी शाखाओं को,
उन्हे इंतज़ार है मौसम बदलने का,
और मुझे तुम्हारा|

मैं तुम्हारे घर के सामने खड़ा था,
सूरज मौसम की अल्हड़ शैतानियो से भिड़ा था,
सूरज से मेने पूछा,
जब हो तुम इतने शक्तिशाली,
क्यू मानते हो मौसम की मनमानी|

सूरज खिलखिला कर बोला,
करवट बदलता यह मौसम,
मुझे रोज़ आश्चर्यचकित कर जाता है,
इसकी यही मस्तमौला अदाए,
मकसद देती है रोज़ मुझे रात से टकराने का |

तभी मौसम नें भी करवट ली,
मुड़ा तो देखा,
स्वेटर में लिपटी तुम,
खुशियोन का पिटारा ला रही थी|

तुम्हारे जाते ही,
मौसम नें अंगड़ाई ली और मुझे पूछा,
क्यों ताकते रहे तुम उसकी राह कई घंटे,
मैं कुछ बोलू उससे से पहले ही,
मौसम और सूरज खिलखिलाए,
मैं भी मस्ती में झूमा,
फिर घर को ओर मुड़ गया|