अंधेरे की चादर
तले छुपते-छुपाते,
आमों को चादर
में बाँधे,
डरे सहमे बढ़े
घर की ओर|
कभी हवा की
सरसराहट,
तो कभी दूर पशुऔ की
आहट,
रोंगटे खड़े कर
देती|
टॉर्च की मधम-२ रोशनी,
रास्ता कम दिखलाती
पर हिम्म्त बढ़ाती,
कुछ दूर चिमनी
से निकलता धुँआ,
ढाढस देता आगे
बढ़ने का|
दबे पावं से
घर में घुस कर,
छिपाना आमों को
बिस्तर तले|
फिर असमंजस
में पड़ जाता
दिल,
रोज़-2 नये बहाने
बनाना इतना आसान
नहीं,
मास्टर तो पट
जाते है चिकनी
चुपड़ी बातों से,
ना माने तो
बस हतेलि या
लाल हो जाती,
पर माँ को
बनाना इतना आसान
नहीं|
माँ के पास
जाके गले लग
जाना,
हल्के से ईक
बहाना बताना,
आज खेल के
बाद बेट ग्राउंड
में छूट गया,
आज मोंटू साइकल के
लूड़क गया|
पहले थोडा गुस्सा
माँ का,
फिर लाड़-प्यार
से रोटी खिलाना,
कल फिर जल्दी आने
का वादा करना|
आज बहुत थक
गये है यह
कहना,
सोने के बहाने
कमरे की चिटकनी
लगाना,
चुपके से पानी
में भिगो कर
आम खाना,
और दबी आवाज़
में इठलाना,
दिन थे वो आज़ादी के|